Friday, 6 September 2013

सुनील सर : जैसा मैंने जाना ....!

 

   पिछले वर्ष वर्धा में बिताया गया पल आज मेरे जेहन में सजीव सा हो गया है । शिक्षक दिवस के दिन हमारे बैच के सारे बच्चों ने मिलकर पढ़ने के बजाय शिक्षकों के बारे जानने का निर्णय लिया । शुरूआत अस्थाना सर से हुयी । अपने विद्यार्थी जीवन की बातें करते -करते  अस्थाना सर भावुक हो गये... वे उन दिनों की स्मृतियों में चले गए और हमलोगों को  उनसे  स्वरचित एक से बढ़कर एक नज्म  और गजल सुनने को मिला । दूसरी  कक्षा सुनील सर की  थी  ...उन्होंने  अपने संस्मरणों से पूरा jnu हमलोगों के सामने पेश कर दिया । मुझे लग रहा था जैसे मैं jnu में हूँ ...और डॉ मैनेजर पाण्डेय , डॉ वीर भारत तलवार मेरे सामने में हैं  । उसके बाद उन्होंने हमलोगों के बीच छुपे फनकारों को  खोज निकाला । कवि सुनील ,गायक गजेन्द्र , गायिका अंजलि और भावना का डांस ... मैं सिर्फ़  दर्शक और श्रोता था ।

सुनील सर की ताकत है किसी से उसका बेस्ट कैसे निकाला जा सकता है ... कभी –कभी पढ़ाते समय कक्षा में जब वे डिवेट कराते ... ऐसा वातावरण का निर्माण होता था कि मुझ जैसे संकोची के मुँह  से भी शब्द निकलने लगते  

 अपने अध्ययन के दौरान जिन आध्यापकों की कक्षा ज़्यादा  मुझे ज़्यादा रुचिकर लगी -- 5वीं तक विजय सर,10वीं में चंद्रशेखर आचार्य सर , 12वीं में अंजय सर , स्नातक में तरुण सर , अमर सर ,शरदेन्दु सर और बलराम सर । परास्नातक में आशीष त्रिपाठी सर ,अवधेश नारायण मिश्र सर  ,पंकज सर,  मनोज सर ,प्रधान सर और श्री प्रकाश शुक्ल सर । वर्धा में सुनील सर ,अरुणेश सर , रामानुज सर और एम॰ फ़िल ॰  में अपूर्वानन्द सर और गौतम सर की कक्षा में मुझे ज़्यादा रुचि होती थी ।अभी तक अपने अकादमिक जीवन में चार शिक्षक की कक्षाओं का दीवाना हुआ हूँ तरुण सर  (से निराला पढ़ना ), आशीष सर( से हयबदन ’) ,सुनील सर (से मनोविश्लेषण) और अपूर्वानन्द सर (को सुनना ...क्या बोलते हैं ... हर शब्द मानों तोल -तोलकर  निकल  रहा हो तर्क की  कसौटी पर...!प्रमाण के साथ ...!!)

 मैं  बहुत कम समय सुनील सर से पढ़ा ,लेकिन एक माह के सीमित अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ वे अपने विद्याथियों का पूरा ख्याल रखते थे । वर्धा में अध्ययन के दौरान एक वाक्या हुआ जिसका जिक्र करना चाहता हूँ  हुआ यों कि मैं क्लास  छोड़ कर नाट्य अध्ययन विभाग में 300 फिल्म देख रहा था । जैसे ही सुनील सर को पता चला  ... उन्होंने फोन किया ....कहाँ  हो ? जल्दी आओ ...क्लास करो ऐसी और कई घटनाएँ हैं ...मैंने हमेशा उन्हें विद्याथियों के सहयोग लिए तत्पर पाया । वर्ग के अंदर और बाहर भी ।वे कैंपस में भी हमलोगों से मिलते बातें करते ... कभी - कभी  चाय –बिस्कुट भी चलता । वे पाठ्यक्रम  से इतर  भी  अपने विद्यार्थियों फिल्मों , नाटकों एवं सांस्कृतिक आंदोलनों रु – ब –रु  करवाते रहते हैं ... मुझे भी पहली बार गंभीर फिल्म से पहली बार  उन्होंने ही परिचित करवाया । श्याम बेनेगल , सत्यजीत रॉय  जैसे निर्दशकों की फिल्में उन्होंने ही पहले-पहल मुझे  दी । जिसके बाद मैं स्मिता पाटिल कि फिल्में खोज़ –खोज़ कर देखने लगा हूँ ... !

उनसे मुझे बहुत कम समय पढ़ने - सीखने  का  अबसर मिला ।  फिर भी  अपने सीमित  अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ  सुनील सर को  हमेशा विद्यार्थियों के प्रति  समर्पित पाया  और विद्यार्थियों के लिए लड़ते हुये पाया । सच बोलने बाले और  हमेशा सच्चाई का साथ देने बाले हमेशा से व्यवस्था के शिकार होते  रहें हैं । हाल- फिलहाल में  आईएएस दुर्गानागपाल , दलित चिंतक कंबल भारती , लोक गायक हेम मिश्रा  आदि भी व्यवस्था  के साजिश  हुये हैं । सुनील सर को भी  सच्चाई का साथ देने और ईमानदारी से अपने कार्य करने का पुरस्कार मिला है ;क्योकि भारत में नमक का दारोगा ही वर्खास्त होता है ....!

Saturday, 24 August 2013

डॉ. रघुवंश: जिनके पैरों में करती थी सरस्वती निवास वे चले गये

        ज करीब दस बजे सुबह मैं फेसबुक पर लॉगइन किया । मेरी नज़र विनोद तिवारी सर की पोस्ट पर पड़ी –“रघुबंश जी का जाना बहुत ही दुखद है । जिस जीवटता के साथ , जिजीविषा के साथ साहित्य को उन्होंने जिया  और रचा वह कल्पनीय है’’ पढ़ते ही मैं काफ़ी विचलित हो गया और  अपने मित्र सुनील को फोन किया । आज जनसत्ता में डॉ रघुवंश जी पर कोई ख़बर आई है । उसने कहा  -हाँ ...और उनका अंतिम संस्कार हो चुका है .... रघुवंश जी को याद करते –करते मैं फैलेश बैक में चला गया ;स्नातक तृतीय वर्ष की एक वाक्या  याद आने लगी  मैं अपने मित्र  गौतम के साथ  पटना पुस्तक मेला धुम रहा  था  , वहाँ अमर सर मिले । उन्होंने हमदोनों को गुलाब जामुन और आइसक्रीम  आदि खिलाया फिर बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी के बुक स्टॉल से रघुबंश  जी की एक पुस्तक साहित्य चिंतन  रचनात्मक आयाम इस  ताकीद के साथ दी – इस पुस्तक से चार पंक्ति पढ़ना  और मनन करना । पहली चार पंक्ति है –“  रचना –प्रक्रिया  के क्रम में भाषिक विधान पर विचार करते हुये साहित्य और काव्य दोनों शब्द मन में उभरते हैं । दोनों में साथ ही अर्थ की सीमा और विस्तार का भाव बना रहता है ........” उस समय मैं कुछ विशेष नहीं समझ सका ,ऊपर सर की भूमिका  मुझ पर दवाब बना रही थी ।

      काशी हिन्दी विश्वविद्यालय से परास्नातक के दौरान उनके कुछ और निबंधों और पुस्तकों से रू –ब –रू  होने का अवसर मिला। एक बार अमर सर की चार पंक्ति वाली वाक्या  का जिक्र मैंने कलशी मेम से किया ।  सुनते ही मेम काफ़ी स्फूर्त हो गयी और रघुवंश जी के  अनेक पक्षों पर बात की । उस संस्मरण में मुझे एक बात काफ़ी प्रभावित किया  कि रघुवंश जी पैर से लिखते हैं । मैं बहुत दिनों तक यही सोचता रहा ,दोस्तों से जिक्र करता रहा ... कि कैसे उन्होंने अपंगता को शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया ।ख़ुद उनकी ही जुबानी  सुनिए --- “ विकलांगता को मैं किसी अभिशाप या हीनता के रूप में नहीं लेता। अपनी विकलांगता की वजह से मैंने खुद को कभी असहाय या दूसरों की दया का पात्र बनने की स्थिति में पाया हो, ऐसा कोई प्रसंग मुझे याद नहीं आता। उल्टे इसके कारण मैं अधिक संकल्पवान और प्रयत्नशील बन सका। मैंने अपनी विकलांगता की कभी परवाह नहीं की। मैं शुरू से ही दोनों हाथों से अपंग था। हाथों से कोई काम कर पाना मेरे लिए मुश्किल होता था, इसलिए मैंने सारे काम पैरों के सहारे करने की आदत डाली। आज 78 वर्ष की उम्र में भी अपने प्राय: सारे काम खुद ही कर लेता हूँ। मैं लिखता भी पैरों से ही हूँ। इसी अभ्यास के बल पर मैंने उच्च शिक्षा पूरी की और अध्यापन-लेखन के क्षेत्र में आया। अब तक विभिन्न विषयों पर करीबन 24-25 किताबें लिख चुका हूँ। कई पत्रिकाओं और ग्रंथावलियों का संपादन भी मैंने किया। आजकल यूरोपीय इतिहास व संस्कृति विषयक एक किताब लिखने में संलग्न हूं। औसतन तीन-चार फुलस्केप पेज रोज लिख लेता हूँ।

पैर से लिखने की शुरुआत बड़े शरारतन ढंग से हुई। मैं पढ़ना शुरू कर चुका था, लेकिन लिख नहीं पाता था। उस वक्त आठ-नौ साल का रहा होऊंगा कि एक दिन अचानक मन में अंत:स्फुरण सी हुई। मैंने चुपके से जाकर पिताजी की कलम उठा ली और उसे अपने दायें पैर के अंगूठे और तर्जनी के बीच फंसाकर हाथ से हल्का-सा सहारा देते हुए अपना नाम उनके रजिस्टर पर जैसे-तैसे लिख डाला। लेकिन ऐसा करने के बाद मैं पता नहीं क्यों डर-सा गया और एक अपराध-बोध से घिर गया। मैं एक कोने में जाकर छिप गया और अपनी उस हरकत की पिताजी पर होने वाली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा। पिताजी आए और अपने रजिस्टर पर मेरा नाम एक नई लिखावट में लिखा देखकर अचंभे में पड़ गए। इन दिनों भाइयों में मैं ही अकेला घर पर था, इससे वे समझ गए कि इसे मैंने ही लिखा है। उन्होंने मां को आवाज दी, ‘जरा सुनो तो, देखो क्या हुआ है।मैं घबरा गया, पता नहीं क्या हो, लेकिन मैंने देखा कि पिताजी खुशी से पुलक रहे थे। मुझे ढाढ़स बंधा कि डरने वाली बात नहीं है। मैं निकलकर बाहर आ गया और धीरे-धीरे पिताजी के पास जाकर खड़ा हो गया। पिताजी ने पूछा, ‘इसे तुमने लिखा है! कैसे किया, जरा फिर से लिखकर दिखाओ।मैंने वैसे ही लिखकर दिखा दिया। वह दिन मेरे जीवन का चिरस्मरणीय दिन है।

उसके बाद मेरा विधिवत लिखना-पढ़ना शुरू हो गया। मिडिल स्कूल और हाईस्कूल तक तो कोई खास दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि तब तक फर्श पर बिछे पाटी पर बैठकर लिखने की सुविधा थी, लेकिन जब कॉलेज में आया तो बेंच-डेस्क पर बैठकर लिखने की समस्या सामने आई। पैर को डेस्क को रखकर लिखना काफी असुविधाजनक था। संतुलन बिगड़ जाने और लुढ़क जाने का खतरा रहता था। तेजी से लिख पाना तो मुश्किल ही था। इसके लिए मैंने किनारे की दीवार के सहारे बैठकर लिखने का तरीका खोज निकाला। कॉलेज और विश्वविद्यालय की कक्षाओं में हमेशा मेरे बैठने का स्थान नियत रहा पहली लाइन की किनारे वाली सीट।

चाय भी मैं कप को पैर से ही पकड़कर पीता हूँ। कभी-कभार बाहर होटल आदि में मुझे पैर के सहारे खाते-पीते देखकर लोग कौतूहल में जरूर पड़ जाते हैं, लेकिन मेरे लिए तो यह रोज का स्वाभाविक अभ्यास है। मुझे हर नए काम के लिए अपना अलग तरीका ईजाद करने का मौका मिलता रहता है। मैं अलग-अलग कामों को नए-नए तरीके से करने के प्रयोग में लगा रहता हूँ।

विकलांगता ने मेरे जीवन और मेरी प्रवृतियों की दिशा निर्धारित करने में भी एक अहम भूमिका निभाई है। यदि मैं विकलांग न रहा होता तो संभवत: आज मैं साहित्य और लेखन के बजाय सक्रिय राजनीति में उठापठक कर रहा होता। बचपन में खेल पाने में अक्षम होने के कारण मैं एकांतप्रिय और चिंतनशील हो गया। घंटो घर से दूर किसी तालाब के किनारे या वृक्ष के नीचे सोचता रहता था। आचार्य नरेन्द्र देव और बाद में राममनोहर लोहिया आदि समाजवादी नेताओं के संसर्ग ने इस प्रवृत्ति को और आगे बढ़ाया। साहित्य, समाज, राजनीति, इतिहास और दर्शन संबंधी मुद्दों और समस्याओं पर पढ़ता-सोचता रहा। यही अध्ययन-चिंतन मेरे लेखन का प्रेरणा-स्रोत रहा है। मुझे लगता है कि मैं सही दिशा में ही हूँ, पर यदि मैं पूरी तरह से शारीरिक रूप से दुरुस्त रहा होता तो इस दिशा में शायद और भी बहुत कुछ कर सकता था। मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं कभी नहीं रहीं, पर अपने चिंतन को व्यापक रूप देने और बेहतर सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्य स्थापित करने की दिशा में भूमिका निभाने की तमन्ना बराबर रही है। अपनी ओर से मैं प्रयत्नशील हूँ। देखें, आगे क्या होता है।

एक बात के लिए मैं अपने जीवन में सदा सबका आभारी रहूंगा कि आज तक किसी ने भी मेरी विकलांगता को लेकर मेरे साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया है जिससे मैं अपमानित या क्षुब्ध हुआ होऊं। उल्टे सबने मुझे हमेशा प्रोत्साहन और सहयोग ही दिया। यही कारण है कि मैं कभी हीनग्रंथि का शिकार नहीं हुआ। विकलांगता कभी अभिशाप नहीं लगी। अपनी विकलांगता का अहसास मुझे कभी नहीं कचोटता ।’’(सृजन- शिल्पी ब्लॉग से साभार )


         जब मैं दिल्ली आ रहा था उस समय कलशी मेम ने मुझे डॉ रघुवंश  जी का पता और फोन नंबर दिया था , समय ले कर मिल लेना उनसे । मैं अपने संकोच और आलसीपन के कारण यह सौभाग्य खो दिया । 10-15 दिन पहले जब मेम उनसे मिलने एम्स आई थी  मुझे भी साथ  ले गयी थी । मेम ,उंनसे मेरा परिचय करवा रही थी , ये मेरा विद्यार्थी है  आनंद ! पहले पटना में था । एम ॰ फ़िल ॰ के लिए दिल्ली आया है । असह्य दर्द में भी वे मेरी तरफ देख रहे थे उनकी आखें मुझसे  बातें कर रही थी । मानो कह रह रहें हो तुमने काफ़ी देर कर दी वत्स ! मैं उन्हें काफ़ी देर तक देख नहीं सका । उन्हें प्रणाम करके आईसीयू से बाहर आ गया । अब वे हमारे साथ नहीं रहे  भगवान उनकी आत्मा को शांति दे ।