‘मैलाआँचल’समता प्रकाशन,पटना[1](मुद्रक- यूनियन प्रेस,पटना-4) से पहली वार1953[2]में प्रकाशित हुआथा,लेकिन व्यवस्थित ढंग से वितरण और प्रसारण नहीं होने के कारण“दूसरे संस्करण(राजकमल प्रकाशन,1954) के प्रकाशन वर्ष को ही ‘मैला आँचल’ का
वास्तविक प्रकाशन-वर्ष मान लिया गया और अब यह एक रूढ़ि सी बन गयी है।”[3] नलिन जी ‘मैला आँचल’का महत्त्व आँकने वाले पहले आलोचक माने जाते हैं । साहित्य–प्रेमियों
के बीच यह भी स्वीकृत है कि उनकी समीक्षा से ही हिन्दी जगत का ध्यान ‘मैला आँचल’की ओर गया। आलोचना-15(1955 ई॰) में समीक्षा प्रकाशित होने से पहले उन्होंने पटना आकाशवाणी
मेंइसकीसमीक्षा की थी।ऐसा कहा जाता है कि इसीसमीक्षा के उपरांत राजकमल प्रकाशन के
प्रबंधक श्री ओमप्रकाश जी का ध्यान ‘मैला आँचल’ की तरफ गया और उन्होंने ‘मैला आँचल’ के वितरण और प्रकाशन के लिए ‘रेणु’ जी को तैयार किया । आलोचना -15 में प्रकाशित समीक्षा में प्रच्छन रूप से यह संकेत मिलता
है, “मुझे संतोष है कि मेरा यह मत दूर- दूर तक
प्रतिध्वनित हुआ है।’’[4]इस बात की पुष्टि स्वयं ‘रेणु’ जी के पत्र से भी होती है,जो उन्होंने अपने भाई को 10 जनवरी 1954 को लिखा था, “फोल्डर छापने के लिए कुछ लोगों की राय संग्रह कर लिया है:
बतौर reviewके। नागार्जुन, नलिन विलोचन शर्मा, दिवाकरप्रसाद विद्यार्थी, नर्मदेश्वर
प्रसाद, अनूप आदि की राय मिल चुकी है।’’[5]
नलिन जी का महत्त्व इस अर्थ
में है कि वे 1954 में प्रकाशित इस कृति का आलोचकीय परिचय दे रहे थे। जैसे ‘मैला आँचल’ एक विशिष्ट
कृति है, वैसे ही नलिन जी की समीक्षा भी विशिष्ट है । केवल
प्रकाशन वर्ष में ही नहीं, बल्कि बाद के वर्षों में भी नलिन
जी की स्थापनाओं पर प्रयाप्त वाद-विवाद हुए हैं। यहाँ हमउनकी समीक्षा के महत्त्वपूर्ण
बिन्दुओं को प्रस्तुत करते हुए कुछ प्रमुख वाद-विवादोंकीचर्चाकरेंगे। सबसे पहले
स्वयं नलिन जी के आलेख केअहम बिन्दु जो गौर से पढ़ने का ताल्लुक रखते हैं—
1. “‘मैला आँचल’फणीश्वरनाथ
‘रेणु’का प्रथम उपन्यास है । यह ऐसा
सौभाग्यशाली उपन्यास है,जो लेखक की प्रथम कृति होने पर भी
ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा दे कि वह चाहे फिर कुछऔर न भीलिखे।’’[6]
2. “ ‘मैला आँचल’ गत वर्ष का ही श्रेष्ठ उपन्यास नहीं है,
वह हिन्दी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में सहज ही परिगणीय है...मैंने इसे ‘गोदान’ के बाद हिन्दी का वैसा दूसरा उपन्यास माना है
।’’[7]
3. ‘‘‘गोदान’ की तुलना में
‘मैला आँचल’ की अपनी सीमाएँ हैं।
समष्टिमूलक उपन्यास के अनुरूप जैसा महाकाव्योचित स्थापत्य ‘गोदान’ में है,उसके विपरीत ‘मैला
आँचल’ सुसंबंद्ध स्थापत्य का उपन्यास है। यही कारण है कि
दूसरे उपन्यास का पात्र बिहार का एक छोटा-सा अंचल है, पर
पहले का पात्र समग्र भारतीय जीवन है। ‘मैला आँचल’की यह सीमा है, पर दुर्बलता नहीं ।’’[8]
4. “‘रेणु’ ने अपने हृदय की सारी ममता और करुणा उड़ेलकर ही अपने गाँव और वहाँ
रहने वालों को जाना होगा, जैसे प्रेमचंद ने जाना था।’’[9]
5. “‘रेणु’ ने प्रेमचंद की तुलना में ‘कथांचल’ को सीमित रखा है,
किन्तु पात्रों और जीवन के पहलुओं के बीच की खाइयों को उस तरह ही पाट डाला है जिस
तरह प्रेमचंद ने ...”[10]
6. “मैं यहीं यह भी कह दूँ कि अपनी संपूर्णता में काव्य का
प्रभाव उत्पन्न करने वाले इस उपन्यास में यही वह अधिक-से-अधिक कवितापन है, जिसकी छूट लेखक ने अपने को दी है।’’[11]
7. “ ‘मैला आँचल’ की भाषा
से हिन्दी समृद्ध हुई है। ‘रेणु’ ने
कुशलता से ऐसी शैली का प्रयोग किया है, जिसमें आँचलिक
भाषातत्त्व परिनिष्ठित भाषा में घुल-मिल जाते हैं।”[12]
‘मैला आँचल’ के संदर्भ में नलिन जी की प्रमुख
स्थापनाओं में सबसे विवादास्पद ‘प्रेमचंद की परंपरा’वाली बात रही है। उपेंद्रनाथ अश्क,प्रकाशचन्द्र
गुप्त,शिवदान सिंह चौहान, नैमिचन्द्र
जैनजैसे समीक्षक इस स्थापना को स्वीकार कर लेते हैं । वहीं दूसरी ओर रामविलास शर्मा, लक्ष्मीनारायण भारतीय सरीखे लेखक और आलोचक इसेखारिज करते हैं । यहाँ संक्षेप
में इस वाद-विवाद का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा ।
उपेंद्रनाथ अश्क का मत नलिन जी से मिलता-जुलता है,“ प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में जो परंपरा स्थापित की थी,जिसे नागार्जुन ने
अपने आँचलिक उपन्यासों द्वारा आगे बढ़ाया,‘मैला आँचल’निश्चय ही उस परंपरा का अगला कदम है ।’’[13]प्रकाशचंद्र गुप्त आश्वस्त होकर लिखते हैं,“हिन्दी की नई पौध एक बार फिर से प्रेमचंद
की परंपरा को दृढ़ और आश्वस्त हाथों से संभल रही है।”[14]शिवदान सिंह चौहान ‘मैला आँचल’ को ‘गोदान’ का विस्तार मानते हैं, “ ‘गोदान’ में अगर आजादी से पहले के भारत और गरीब और अमीर किसान और जमींदार के
परस्पर संबंधों का यथार्थ चित्र पेश किया गया है, तो ‘मैला आँचल’ में आजादी के बाद का ।”[15] नेमिचन्द्र जैन ने ‘मैला आँचल’ में प्रस्तुत ग्रामीण-जीवन के
चित्रण को ‘प्रेमचंद के उपन्यासों’ से
आगे स्वीकार किया है,“इतनी तरल भावावेशपूर्ण उत्कटता से शायद
ही किसी ने देखा हो—शरद और प्रेमचंद ने भी नहीं,तारशंकर बनर्जी
ने भी नहीं ।”[16] लक्ष्मीनारायण भारतीय ने ‘मैला आँचल’ को प्रेमचंद की परंपरा का
उंपन्यास न मानते हुए लिखा है,“आप इस उपन्यास को गैर हिन्दी-भाषा
में अनूदित करके रखें, और कहें कि ‘यही
प्रेमचंद-स्कूल है’तो प्रेमचंद-स्कूल का प्रतिनिधित्व क्या
इसीरूप में हिन्दी- जगत स्वीकार करेगा ?”[17]
प्रसंगतः ‘मैला आँचल’ पर केन्द्रित रामविलास शर्माके आलेख पर भीध्यान देना उपयोगी होगा। सबसे
पहले यह ध्यान रखना होगा कि रामविलास जी का आलेख ‘मैला आँचल’ की समीक्षा नहीं, यह नलिन जी की मूल स्थापना का
खंडन करने के लिए लिखा गया है। इस प्रकार उनका आलेख समीक्षा की समीक्षा है। इस
समीक्षा की समीक्षा के माध्यम से नलिन जी के बहाने रामविलास जी‘मैला आँचल’ की सीमाओं की व्याख्या करते हैं। हमें
देखना है किक्या ‘मैला आँचल’वास्तव में
एक असंगत कृति है जैसा कि रामविलास जी बतलाते हैं ? या फिर नलिन जी कीसमीक्षा में
असंगति है? या कहींऐसा तो नहीं है कि मूल समीक्षामें असंगति
की खोज करते-करते स्वयं रामविलास जी का हीआलेख असंगत हो गया है?
‘मैला आँचल’ के संदर्भ में नलिन जी की
स्थापना पर गौर करें, “‘मैला आँचल’ इसी प्रकार का,‘गोदान’ की
परंपरा में,भारतीय भाषाओं का दूसरा उपन्यास है ।”[18]रामविलास जी नलिन जी की मूल समीक्षा का उपयोग नहीं करते
हैं। वे ‘मैला आँचल’ के फ्लैप
पर छपी समीक्षक की टिप्पणी का हवाला देते हुए अपने आलेख ‘प्रेमचंद
की परंपरा और आँचलिकता’ की शुरुआत यों करते हैं, “ ‘मैला आँचल’ के आवरण पृष्ठ
पर एक आलोचक की सम्मति छपी है: ‘प्रेमचंद की परंपरा’ में दशकों बाद यह पहला उपन्यास लिखा गया है ।”[19] रामविलास जी की पहली पंक्ति में‘एक आलोचक की सम्मति’गौरतलब
है। रामविलास जी नलिन जी का जिक्र तो करते हैं पर उनका नाम नहीं लेते हैं। यहाँ रामविलास
जी व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग न करके जातिवाचक संज्ञा का प्रयोग करते हैं। अपने
आलेख में वे नलिन जी कीस्थापनाओंको खारिज करने का प्रयास करते हैं । यहाँ रामविलास
जी की प्रमुख मान्यताओं का जिक्र जरूरी है—
1.
“ प्रेमचंद की परंपरा? इधर हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों की काफी चर्चा हुई है और इस आँचलिकता से
‘मैला आँचल’ का संबंध विशेष रूप से
जोड़ा गया है । प्रेमचंद की परंपरा से इस आँचलिकता का क्या संबंध है ?’’[20]
2.
“ ‘मैला आँचल’ में नई चीज है—लोकसंस्कृति का वर्णन।
लोकगीतों और लोकनृत्यों के वर्णन द्वारा
लेखक ने एक अंचल-विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया है। इसके साथ कथा कहने की
उसकी नई पद्धति है...नतीजा यह है कि चलचित्र में जो संबद्धता होती है, उसका यहाँ आभाव है। उसकी चित्रण-पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतवाद के
निकट है ।’’[21]
3.
“ ‘मैला आँचल’की भाषा-शैली
मूलतः बलचनमा की शैली है। कुछ अंशों को छोड़कर लेखक भी अपने पात्रों की तरह बोलता
है और व्याकरण-संबंधी भूलें करता है(यह कहना कठिन है कि जानबूझकर या असावधानी से)”[22]
4.
“चित्रण और वर्णन में कितनी बातें छोड़ देनी चाहिए और कितनी का उल्लेख होना
चाहिए—कथाशिल्प की इन विशेषताओं में ‘मैला आँचल’ का लेखक प्रेमचंद की परंपरा से दूर जा पड़ा
है।’’[23]
उपर्युक्त उद्धरणों पर ध्यान देने से‘मैला आँचल’ संबंधी रामविलास जी का
दृष्टिकोण स्पष्टहो जाता है।शर्माद्वयके मतों को समग्र परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह
भी स्पष्ट है कि‘प्रेमचंद की परंपरा’
की व्याख्या दोनों करते हैं। एक उस व्याख्या का उपयोग ‘मैला
आँचल’ को ध्वस्त करने के लिए करते हैं,
दूसरे( नलिन जी) उसका उपयोग ‘मैला आँचल’ को उपन्यास के एक प्रतिमान के रूप में स्थापित करने के लिए करते हैं। यहाँ
ध्यान देना जरूरी है कि नलिन जी की मूल स्थापना ही रामविलास जी के लिए प्रस्थान
बिन्दु है । यदि वे ‘प्रेमचंद की परंपरा’की बात करते हैं तो जाहिर है कि इसके लिए सूत्र वे नलिन जी से ही ग्रहण करते
हैं । समीक्षा की समीक्षा बाले आलेख के लिए यह बात सकरात्मक भी होती है, नकरात्मक भी होती है। इसलिए अब देखना चाहिए कि रामविलास शर्मा का आलेख
किस दिशा की ओर अग्रसर है ?
रामविलास जी अपने आलेख में ‘प्रेमचंद की परंपरा’ की अपनी व्याख्या में अपने
प्रिय लेखकों के जितने नजदीक होते जाते हैं,‘रेणु’ से उतने ही दूर होते जाते हैं। इस
प्रकार वे‘प्रेमचंद की परंपरा’ का एक अपना वृत्त तैयार करते हैं जिसके भीतर फिट
करने के लिए ‘रेणु’ को अपने अनुरूप
नहीं समझते हैं। दूसरी ओर नलिन जी पहले से तैयार किए हुए ऐसे किसी वृत्त का उपयोग
नहीं करते हैं। वे प्रसंगतः प्रेमचंद, तोलल्स्तोय,शोलोकोव,लीविस,स्टाइनबेक का
जिक्र करते हैं। हम इसे उनके अध्ययन की व्यापकता का प्रभाव भी कह सकते हैं । हम यह
नहीं कह रहे कि रामविलास जी में अध्ययन की व्यापकता नहीं है। हाँ, उनमें अपने प्रिय लेखकों के प्रति उनका पूर्वग्रह बार-बार उभरता दिखता है
। नलिन जी में ऐसा कोई आग्रह नहीं है। उनकी तुलनात्मकता का आधार प्रियता-अप्रियता
नहीं है । वे कई कृतियों के सामान्य गुणधर्म को तुलना का आधार बनाते हैं और हिन्दी
के विशिष्ट उपन्यास ‘गोदान’ के बाद ‘मैला आँचल’ का नाम लेते हैं। वे वैश्विक संदर्भों की
चर्चा करते हुए भी ‘मैला आँचल’ को
हिन्दी के पाठकों की रुचि के दायरे में ले आते हैं।रामविलास जी हिन्दी लेखकों का
जिक्र करते हुए भी ‘मैला आँचल’ को
हिन्दी के पाठकों की समान्य रुचि का विषय नहीं बना पाते। हम जानते हैं कि आलोचना
का एक काम पाठकों की रुचि को संस्कारित करना है, उसे संवर्धित
और पोषित करना भी है। क्या रामविलास जी की समीक्षा से आलोचना के इस धर्म का पालन
होता है? इस समीक्षा को पढ़कर जो समग्र प्रभाव उत्पन्न होता
है उसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि‘नहीं’।
रामविलास जी बड़े आलोचक हैं । अक्सर ये देखा जाता है कि बड़े आलोचक के अंतर्विरोध
भी बड़े होते हैं। उक्त आलेख में ही जहाँ वे ‘रेणु’ को प्रेमचंद की प्ररंपरा के
प्रतिकूल दिखाते हैं, कुछ देर बाद कहते पाये जाते हैं कि“‘मैला आँचल’ का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो उसे
प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ता है। बहुत कम उपन्यासों में पिछड़े हुए गाँवों के वर्ग-संघर्ष, वर्ग-शोषण और वर्ग-अत्याचारों का ऐसा जीता–जागता चित्रण मिलेगा। यह उसका
सबल पक्ष है ।’’[24]एकमात्र इसीउद्धरण में तीन बातेंकाबिलेगौर हैं—
(1)
‘मैला आँचल’की विशिष्टता उसे ‘प्रेमचंद
की परंपरा’ से जोड़ती है ।
(2)
वर्ग चेतना से संबंधित चित्रण उपन्यास का सबलपक्ष है।
(3)
‘मैला आँचल’ के गुणोंको भुला देना उचित न होगा
।
रामविलास जी ‘मैला आँचल’ के समग्र प्रभाव को इन्हीं कुछ पंक्तियों
में उजागर कर देते हैं। बड़े आलोचक की एक पहचान यह भी है कि वह कितने कम शब्दों में
बड़ी बात कह डालता है। दूसरी और वे खंडन करने के लिए कई पृष्ठ लिख डालते हैं।उसकी
सफलता- असफलता का निर्णय फिलहाल नहीं । हम बताना चाहते हैं कि जो रामविलास जी
आरंभ में ‘प्रेमचंद
की परंपरा’ में रेणु के न शामिल होने की धारणा प्रस्तुत कर
रहे हैं , वही आगे चलकर ‘रेणु’ को प्रेमचंद की परंपरा में होने का कारण बता रहे हैं। यह आलोचक के रूप में
रामविलास जी का एकबहुत बड़ा अंतर्विरोध है । इस अंतर्विरोध का लाभ मिलता है ‘मैला आँचल’ को । सजग पाठक देख सकता है कि प्रच्छन्न
रूप से रामविलास जी ‘मैला आँचल’की शक्ति
को स्वीकार कर कर रहे हैं । केवल नलिन जी के कथन का विरोध करने के लिए विरोध का
रास्ता अपना रहे हैं। जब वे ‘मैला आँचल’ के प्रति प्रच्छन्न सहमति व्यक्त करते हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं कि
नलिन से उनका विरोध पूरी तरह सार्थक और सोद्देश्य है। प्रसंगतः ध्यान दिलाना होगा
कि अयोध्या प्रसाद खत्रीके संदर्भ में नलिन जी ने उनके समकालीन आलोचकों के लिए “निषेधमूलक
मान्यता” जैसे अतिविशिष्ट पद का प्रयोग किया है । दिलचस्प संयोग है कि हमारे
आलोच्य प्रसंग में नलिन जी कायह पद स्वयं रामविलास जी की ‘मैला
आँचल’ संबंधी आलोचना-दृष्टि पर चस्पां हो जाता है। और तो और ‘मैला
आँचल’की व्याख्या और समीक्षा के प्रति रामविलास जी का जो बर्ताव है, वह स्वयं नलिन जी की समीक्षा के लिएभी “निषेधमूलक स्वीकृति” का उदाहरण बन
गया है।