Sunday, 11 September 2016

                       नलिन विलोचन शर्मा : शताब्दी स्मरण
                                                          
                                                 

               


आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का जन्म 18फरवरी 1916 को  बदरघाट, पटना सिटी  में हुआ । उन्हें विद्वता, धीरता और गंभीरता विरासत में मिली थी । जर्मन विद्वान विंटरनित्स ने जिस भारतीय मनीषी  को आधुनिक बृहस्पति कहा था, वे उसी दर्शन और संस्कृत के प्रख्यात मनीषी महामहोपाध्याय पं. रामावतार  शर्मा के  ज्येष्ठ पुत्र थे । उनकी माता का नाम रत्नावती था । बचपन में इन्हें प्यार से बबुआबुलाया जाता था । बचपन से ही नलिन जी की  शिक्षा-दीक्षा  पिता के देख-रेख में हुयी । पिता के निधन के बाद वे पहली बार स्कूल(पटना कॉलेजिएट) में दाखिल हुए, उस समय उनकी उम्र तेरह वर्ष थी । 1931 में  यही से उन्होंने मैट्रिक परीक्षा पास की । उच्च शिक्षा पटना विश्वविद्यालय में पूरी हुयी । 1938 में  इन्होंने संस्कृत से एम. ए. किया । एम. ए. करने के बाद प्रो. अनंत प्रसाद बनर्जी के निर्देशन में कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दंड-विधान विषय पर शोध-कार्य शुरू किया लेकिन यह शोध-कार्य पूरा नहीं  हो सका ।
नलिन जी आइ. सी. एस. की परीक्षा में भी शामिल हुए थे, उनका ध्येय  अधिकारी बनना नहीं, व्यापक अध्ययन करना भर था । डॉ. नगेन्द्र ने अपने संस्मरण में लिखा है, “आई. सी. एस. के योग्य  व्यक्तित्व–संपत्ति उन्हें सहज ही प्राप्त थी । किन्तु, उनके पास कुछ ऐसा भी था, जो आई. सी. एस. के लिए अपेक्षित योग्यता की परिधि में नहीं समा पाता था—पांडित्य का आत्मगौरव और स्वाधीनचेतना कलाकार के मन की मस्ती । थाड़े से ही परिचय के बाद परीक्षा के प्रति उनका उपेक्षा-भाव मुझपर अनायास ही व्यक्त हो गया—परीक्षा केवल व्यापक अध्ययन के लिए व्याज-मात्र थी ।’’

1942 ई. में  नलिन जी की नियुक्ति आरा( बिहार) के हरप्रसाद जैन, कॉलेज के संस्कृत विभाग में हुयी । यहाँ अध्यापन- कार्य करते हुए उन्होंने हिन्दी में एम. ए. किया । एक बार फिर उन्होंने रंगमंच तथा नाटक विषय पर शोध-कार्य शुरू किया, लेकिन यह शोध-प्रबंध भी पूरा नहीं हुआ । 24 सितंबर 1946 को पटना कॉलेज में इनकी नियुक्ति हिन्दी के अध्यापक  के रूप में हुयी । अक्तूबर,1947को इनका ट्रांसफर राँची कॉलेज में हो गया । अप्रैल,1948में  पुनः पटना कॉलेज आ गये । 1959 में पटना विश्वविद्यालय के अध्यक्ष नियुक्त हुए और ताउम्र यहीं रहे । 
जून 1941 में नलिन जी ने श्रीमती कुमुद शर्मा के साथ प्रेम विवाह किया, जो नवोदित चित्रकार थीं । कहते हैं वे जितनी रूपवती थीं, उतनी ही सुरुचि-सम्पन्न भी थीं । नलिन जी की विकास में उनकी बड़ी भूमिका है ।नलिन जी उनके लिए  गृहिणी-सचिव-सखी जैसे सम्बोधन प्रयुक्त करते हैं । नलिन जी के असमय निधन (12सितंबर 1961) के पश्चात इन्हीं की सजगता के कारण  उनका अधिकांश साहित्य  बच सका । राजीव शर्मा ( कुग्गू)  इनके एक मात्र पुत्र थे ।
नलिनजी  हिन्दी की वर्तमान पीढ़ी के सर्वतोमुखी (All-rounder) लेखक थे । विज्ञान और दर्शन के मिलन विंदु के विरल कवि थे, दुर्लभ मनोवैज्ञानिक उपलब्धि के कहानीकार थे, प्रत्येक रचना के भीतर से ही उसके मूल्यांकन का निष्कर्ष निकालने वाले और इस प्रकार अपनी उद्भभावनाओं से रचनात्मक संभावनाओं के विकसित स्तर के उपजीव्य बनाते हुए आलोचना को सर्जनात्मक स्थापत्य देनेवाले समीक्षा-शिल्पी थे, वेश्मनाट्य के व्याख्याता और सर्वतोभावेन गीतिनाट्य के एक मात्र अधिकारी प्रणेता थे, व्यंजक गद्य के निर्माता थे और एक ऐसे सुधी साहित्यिक संपादक थे, जिन्हें विषय से लेकर लतीफे एवं आवरणसज्जा पर कुछ-न-कुछ बिलकुल नया और बहुत महत्त्वपूर्ण कहना था । पर, बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कुशल चित्रकार भी थे ।” नलिन जी के कृतित्व पर  उनके सहयोगी  केसरी कुमार की टिप्पणी कहीं से अतियुक्ति नहीं है । उन्होंने कुल 45 वर्ष और 6 माह खर्च करके विपुल साहित्य लिखा है ।  इनके व्यक्तित्व पर  पर यदि ध्यान दें तो  आश्चर्य होता है कि एक व्यक्ति जो सफ़ल अध्यापक हो, बिहार साहित्य सम्मेलन का प्रधानमंत्री हो,  बिहार राष्ट् भाषा परिषद का शोध –निर्देशक हो,‘साहित्य’,‘दृष्टिकोण और कविता का यशस्वी संपादक भी हो— वह एक साथ इतना काम कैसे करता थे !
19वीं शती के अंतिम दशक और 20वीं शती के आरंभिक तीन दशकों में  काशी नागरी प्रचारणी सभा में जैसा योगदान श्यामसुंदर दास और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का है, वही योग पाँचवें और छठे दशक में आचार्य शिवपूजन सहाय और आचार्य नलिन विलोचन शर्मा का है, कहना असंगत नहीं है । हिन्दी में तात्त्विक शोध का आज भी अभाव है, नलिन जी पहले आलोचक हैं, जिन्होंने तात्त्विक शोध के प्रति लोगों का ध्यान दिलाया । सिर्फ़ दिलाया ही नहीं, किया भी । सूफी कवि किफायत की रचना, लालचन्द्र–कृत हरिचरित्र गोस्वामी, लोककथा कोश(1959), लोककथा परिचय(1959), प्राचीन हस्तलिखित पोथियों का विवरण, छः खंडों में(1959), सदलमिश्र ग्रंथावली(1960),तुलसीदास(1961), संत परंपरा और साहित्य (1960), अयोध्या प्रसाद खत्री–स्मारक ग्रंथ(1960),‘भारतीय साहित्य परिशीलन तथा अन्वेषण’,‘हिन्दी साहित्य परिशीलन तथा अन्वेषण—आदि ग्रन्थों का सम्पादन, जो तात्त्विक शोध  ही  है ।अपने आप में उपलब्धि है । इस कार्य के  फलस्वरूप बिहार के कई  प्राचीन और गुमनाम साहित्यकार प्रकाश में आये । 
शोध  में पाठानुसंधान और भाषा-विज्ञान विशेषकर भाषा की बोलियों के अध्ययन में भी नलिनजी की रुचि थी, बोलियों के भाषा वैज्ञानिक महत्त्व पर वे  ‘साहित्य’ के संपादकीय में समय-समय पर लिखा करते थे,उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ पद्मराग नाम से भी लिखीं हैं । इनकी पुस्तक-समीक्षाएँभी  आधुनिक दृष्टि से लैश होती थीं । अपनी आधुनिक-दृष्टि और प्रयोगशीलता के कारण ही वेमैला आँचल’,‘बाणभट्ट की आत्मकथा’,‘सुनीता और घेरे के बाहरजैसे उपन्यासों के पक्ष में डटे रहे जो कथ्य और शिल्प दोनों में लीक से अलग थे । फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ के ऐतिहासिक उपन्यास मैला आँचल पर पहली समीक्षा इन्होंने ही लिखी, जिसके कारण हिन्दी संसार का ध्यान मैला आँचल की तरफ गया ।
कविता में प्रपद्यवाद के प्रवर्तन का श्रेय इन्हीं को है । प्रपदयवाद को नकेनवाद भी कहा जाता है । नकेन शब्द नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और श्री नरेश  के प्रथमाक्षरों को मिलाने से बना है । नकेन के प्रपद्य(1956) और ‘नकेन-2(1982) प्रपद्य के दो संकलन हैं । दोनों संकलनों में नलिन जी कुल39कविताएँ शामिल हैं । अप्रकाशित कविताओं कि संख्या 86 है । इन कविताओं में वैज्ञानिकता और बौद्धिकता की प्रधानता है , जो उस समय बिलकुल नई बात थी । कहानीकार के रूप में भी  नलिनजी उपस्थिति महत्त्वपूर्ण है । यौन मनोविज्ञान पर इन्होंने अनूठी कहानियाँ लिखीं हैं ।विष के दाँत’ (1951),सत्रह असंगृहीत पूर्व छोटी कहानियाँ(1960)इनके कहानी संग्रह  हैं ।
नलिन जी का हिन्दी आलोचना में प्रवेश आचार्य रामचन्द्र शुक्ल  के अवसान के बाद होता है । आचार्य शुक्ल की समीक्षा चौथे दशक में पूर्ण होती है और आचार्य नलिन विलोचन शर्मा की शुरुआत इसी दशक से होती है । यह दशक अनेक दृष्टियों से देश और दुनिया में महत्त्वपूर्ण था। द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका और स्वतंत्रता आंदोलन  का जो  स्वस्थ–अस्वस्थ प्रभाव पड़ रहाथा उससे हिन्दी साहित्य भी अछूता नहीं था।मार्क्सवाद, फ्रायडवाद, अस्तित्ववाद, गाँधीवाद और समाजवाद आदि जो देश-दुनिया के ज्ञान और दर्शन की प्रमुख धाराएँ थीं । इसका प्रभाव  बुद्धिजीवियों पर पड़ना स्वाभाविक है, नलिन जी पर भी इन विचारों का प्रभाव पड़ा। भारतीय संदर्भ में देखें तो, नेहरू और नलिन—दोनों आधुनिकता के प्रबल प्रवक्ता थे, लेकिन परंपरा के भी उतने ही गहरे जानकार थे। पहले ने भारतीय राजनीति में आधुनिकता का सफ़ल प्रयोग किया, दूसरे ने साहित्य में । नलिन जी ने संस्कृत की शास्त्रीय आलोचना और पश्चिम की आलोचना पद्धति का गहन अध्ययन किया था, लेकिन उन्होंने अनुसरण करने के बजाय अपने लिए नई आलोचनात्मक पद्धति की ख़ोज की है । वे हिन्दी के पहले आधुनिक आलोचक थे । उनमें परंपरा के नाम पर जड़ विचारों का त्याग करने और नए आधुनिक विचारों को ग्रहण करने की अद्भुत क्षमता थी ।इसी कारण साहित्य में हो रहे नए प्रयोगों के साथ खड़े रह पाये ।उनका आलोचनात्मककार्यक्षेत्र का फैला हुआ है । ‘दृष्टिकोण’ (1947),‘साहित्य का इतिहास-दर्शन’ (1960),‘मानदंड’ (1963),‘हिन्दी उपन्यास : विशेषतः प्रेमचंद’ (1968),‘साहित्य: तत्त्व और आलोचना’ (1995) उनकी आलोचनात्मक पुस्तकें  हैं ।हिंदी में  इतिहास-दर्शन जैसे गंभीर विषय पर लिखने वाले वे पहले व्यक्ति  हैं । सभी तरह के नए-पुराने विषयों और विश्व के श्रेष्ठ साहित्य पर उनकी एक  समान पकड़ थी । जिस अधिकार  से वे कालिदास पर लिखते थे, उसी अधिकार से अपने समकालीन अज्ञेय आदि पर भी । रूसी कथाकार तुर्गनेव, दास्ताव्स्की, फ्रांसीसी उपन्यासकार आन्द्रे जींद, इंग्लैंड के गल्पकार आर्थर कोयस्लर और टी.एस. एलियट  जैसे बड़े रचनाकारों पर लिखने वालों में भी संभवतः वे हिन्दी के पहले आलोचक हैं । यहाँ हमारा उद्देश्य उनके उपलब्धियों की  सूची पेश करना नहीं है, बल्कि जन्मशताब्दी वर्ष में उनकी याद दिलाना है ताकि उनकी कृतियों का पुनर्पाठ किया जा सके, उनके योगदानों पर विचार-विमर्श हो सके।






Sunday, 14 August 2016

नलिन विलोचन शर्मा बनाम रामविलास शर्मा (अर्थात् ‘मैला आँचल’ पर पक्ष-विपक्ष)






मैलाआँचलसमता प्रकाशन,पटना[1](मुद्रक- यूनियन प्रेस,पटना-4) से पहली वार1953[2]में प्रकाशित हुआथा,लेकिन व्यवस्थित ढंग से वितरण और प्रसारण नहीं होने के कारणदूसरे संस्करण(राजकमल प्रकाशन,1954) के प्रकाशन वर्ष को ही मैला आँचल का वास्तविक प्रकाशन-वर्ष मान लिया गया और अब यह एक रूढ़ि सी बन गयी है।[3] नलिन जी मैला आँचलका महत्त्व  आँकने वाले पहले आलोचक माने जाते हैं । साहित्य–प्रेमियों के बीच यह भी स्वीकृत है कि उनकी समीक्षा से ही हिन्दी जगत का ध्यान मैला आँचलकी ओर गया। आलोचना-15(1955 ई॰) में समीक्षा प्रकाशित होने से पहले उन्होंने पटना आकाशवाणी मेंइसकीसमीक्षा की थी।ऐसा कहा जाता है कि इसीसमीक्षा के उपरांत राजकमल प्रकाशन के प्रबंधक श्री ओमप्रकाश जी का ध्यान मैला आँचल की तरफ गया और उन्होंने मैला आँचल के वितरण और प्रकाशन के लिए रेणु जी को तैयार किया । आलोचना -15 में प्रकाशित समीक्षा में प्रच्छन रूप से यह संकेत मिलता है, “मुझे संतोष है कि मेरा यह मत दूर- दूर तक प्रतिध्वनित हुआ है।’’[4]इस बात की पुष्टि स्वयं रेणु जी के पत्र से भी होती है,जो उन्होंने अपने भाई को 10 जनवरी 1954 को लिखा था, “फोल्डर छापने के लिए कुछ लोगों की राय संग्रह कर लिया है: बतौर reviewके। नागार्जुन, नलिन विलोचन शर्मा, दिवाकरप्रसाद  विद्यार्थी, नर्मदेश्वर प्रसाद, अनूप आदि की राय मिल चुकी है।’’[5]

        नलिन जी का महत्त्व इस अर्थ में है कि वे 1954 में प्रकाशित इस कृति का आलोचकीय परिचय दे रहे थे। जैसे मैला आँचल एक विशिष्ट कृति है, वैसे ही नलिन जी की समीक्षा भी विशिष्ट है । केवल प्रकाशन वर्ष में ही नहीं, बल्कि बाद के वर्षों में भी नलिन जी की स्थापनाओं पर प्रयाप्त वाद-विवाद हुए हैं। यहाँ हमउनकी समीक्षा के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को प्रस्तुत करते हुए कुछ प्रमुख वाद-विवादोंकीचर्चाकरेंगे। सबसे पहले स्वयं नलिन जी के आलेख केअहम बिन्दु जो गौर से पढ़ने का ताल्लुक रखते हैं—
1.     “‘मैला आँचलफणीश्वरनाथ रेणुका प्रथम उपन्यास है । यह ऐसा सौभाग्यशाली उपन्यास है,जो लेखक की प्रथम कृति होने पर भी ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करा दे कि वह चाहे फिर कुछऔर न भीलिखे।’’[6]
2.     “ ‘मैला आँचल गत वर्ष का ही श्रेष्ठ उपन्यास नहीं है, वह हिन्दी के दस श्रेष्ठ उपन्यासों में सहज ही परिगणीय है...मैंने इसे गोदान के बाद हिन्दी का वैसा दूसरा उपन्यास माना है ।’’[7]
3.     ‘‘‘गोदान की तुलना में मैला आँचल की अपनी सीमाएँ हैं। समष्टिमूलक उपन्यास के अनुरूप जैसा महाकाव्योचित स्थापत्य गोदान में है,उसके विपरीत मैला आँचल सुसंबंद्ध स्थापत्य का उपन्यास है। यही कारण है कि दूसरे उपन्यास का पात्र बिहार का एक छोटा-सा अंचल है, पर पहले का पात्र समग्र भारतीय जीवन है। मैला आँचलकी  यह सीमा है, पर दुर्बलता नहीं ।’’[8]
4.     रेणु ने अपने हृदय की  सारी ममता और करुणा उड़ेलकर ही अपने गाँव और वहाँ रहने वालों  को जाना होगा, जैसे प्रेमचंद ने जाना था।’’[9]
5.     रेणु ने प्रेमचंद की तुलना में कथांचल को सीमित रखा है, किन्तु पात्रों और जीवन के पहलुओं के बीच की खाइयों को उस तरह ही पाट डाला है जिस तरह प्रेमचंद ने ...”[10]
6.     “मैं यहीं यह भी कह दूँ कि अपनी संपूर्णता में काव्य का प्रभाव उत्पन्न करने वाले इस उपन्यास में यही वह अधिक-से-अधिक कवितापन है, जिसकी छूट लेखक ने अपने को दी है।’’[11]
7.     ‘मैला आँचल की भाषा से हिन्दी समृद्ध हुई है। रेणु ने कुशलता से ऐसी शैली का प्रयोग किया है, जिसमें आँचलिक भाषातत्त्व परिनिष्ठित भाषा में घुल-मिल जाते हैं।”[12]
मैला आँचल के संदर्भ में नलिन जी की प्रमुख स्थापनाओं में सबसे विवादास्पद प्रेमचंद की परंपरावाली बात रही है। उपेंद्रनाथ अश्क,प्रकाशचन्द्र गुप्त,शिवदान सिंह चौहान, नैमिचन्द्र जैनजैसे समीक्षक इस स्थापना को स्वीकार कर लेते हैं । वहीं दूसरी ओर रामविलास शर्मा, लक्ष्मीनारायण भारतीय सरीखे लेखक और आलोचक इसेखारिज करते हैं । यहाँ संक्षेप में इस वाद-विवाद का उल्लेख करना अप्रासंगिक न होगा ।
उपेंद्रनाथ अश्क का मत नलिन जी से मिलता-जुलता है,“ प्रेमचंद ने गोदान में जो परंपरा स्थापित की थी,जिसे नागार्जुन ने अपने आँचलिक उपन्यासों द्वारा आगे बढ़ाया,‘मैला आँचलनिश्चय ही उस परंपरा का अगला कदम है ।’’[13]प्रकाशचंद्र गुप्त आश्वस्त होकर लिखते हैं,“हिन्दी की नई पौध एक बार फिर से प्रेमचंद की परंपरा को दृढ़ और आश्वस्त हाथों से संभल रही है।”[14]शिवदान सिंह चौहान मैला आँचल को गोदान का विस्तार मानते हैं,गोदान में अगर आजादी से पहले के भारत और गरीब और अमीर किसान और जमींदार के परस्पर संबंधों का यथार्थ चित्र पेश किया गया है, तो मैला आँचल में आजादी के बाद का ।”[15] नेमिचन्द्र जैन ने मैला आँचल में प्रस्तुत ग्रामीण-जीवन के चित्रण को प्रेमचंद के उपन्यासों से आगे स्वीकार किया है,“इतनी तरल भावावेशपूर्ण उत्कटता से शायद ही किसी ने देखा हो—शरद और प्रेमचंद ने भी नहीं,तारशंकर बनर्जी ने भी नहीं ।”[16] लक्ष्मीनारायण भारतीय ने मैला आँचल को प्रेमचंद की परंपरा का उंपन्यास न मानते हुए लिखा है,“आप इस उपन्यास को गैर हिन्दी-भाषा में अनूदित करके रखें, और कहें कि यही प्रेमचंद-स्कूल हैतो प्रेमचंद-स्कूल का प्रतिनिधित्व क्या इसीरूप में हिन्दी- जगत स्वीकार करेगा ?[17]
प्रसंगतः मैला आँचल पर केन्द्रित रामविलास शर्माके आलेख पर भीध्यान देना उपयोगी होगा। सबसे पहले यह ध्यान रखना होगा कि रामविलास जी का आलेख मैला आँचल की समीक्षा नहीं, यह नलिन जी की मूल स्थापना का खंडन करने के लिए लिखा गया है। इस प्रकार उनका आलेख समीक्षा की समीक्षा है। इस समीक्षा की समीक्षा के माध्यम से नलिन जी के बहाने रामविलास जीमैला आँचल की सीमाओं की व्याख्या करते हैं। हमें देखना है किक्या मैला आँचलवास्तव में एक असंगत कृति है जैसा कि रामविलास जी बतलाते हैं ? या फिर नलिन जी कीसमीक्षा में असंगति है? या कहींऐसा तो नहीं है कि मूल समीक्षामें असंगति की खोज करते-करते स्वयं रामविलास जी का हीआलेख असंगत हो गया है?
मैला आँचल के संदर्भ में नलिन जी की स्थापना पर गौर करें,मैला आँचल इसी प्रकार का,‘गोदान की परंपरा में,भारतीय भाषाओं का दूसरा उपन्यास है ।”[18]रामविलास जी नलिन जी की मूल समीक्षा का उपयोग नहीं करते हैं। वे मैला आँचल के फ्लैप पर छपी समीक्षक की टिप्पणी का हवाला देते हुए अपने आलेख प्रेमचंद की परंपरा और आँचलिकता की शुरुआत यों करते हैं,मैला आँचल के आवरण पृष्ठ पर एक आलोचक की सम्मति छपी है: प्रेमचंद की परंपरा में दशकों बाद यह पहला उपन्यास लिखा गया है ।”[19] रामविलास जी की पहली पंक्ति मेंएक आलोचक की सम्मतिगौरतलब है। रामविलास जी नलिन जी का जिक्र तो करते हैं पर उनका नाम नहीं लेते हैं। यहाँ रामविलास जी व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग न करके जातिवाचक संज्ञा का प्रयोग करते हैं। अपने आलेख में वे नलिन जी कीस्थापनाओंको खारिज करने का प्रयास करते हैं । यहाँ रामविलास जी की प्रमुख मान्यताओं का जिक्र जरूरी है—
1.     “ प्रेमचंद की परंपरा? इधर हिन्दी में आँचलिक उपन्यासों की काफी चर्चा हुई है और इस आँचलिकता से मैला आँचल का संबंध विशेष रूप से जोड़ा गया है । प्रेमचंद की परंपरा से इस आँचलिकता का क्या संबंध है ?’’[20]
2.     ‘मैला आँचल में नई चीज है—लोकसंस्कृति का वर्णन। लोकगीतों और लोकनृत्यों के वर्णन  द्वारा लेखक ने एक अंचल-विशेष की संस्कृति का चित्र अंकित किया है। इसके साथ कथा कहने की उसकी नई पद्धति है...नतीजा यह है कि चलचित्र में जो संबद्धता होती है, उसका यहाँ आभाव है। उसकी चित्रण-पद्धति यथार्थवाद से अधिक प्रकृतवाद के निकट है ।’’[21]
3.     मैला आँचलकी भाषा-शैली मूलतः बलचनमा की शैली है। कुछ अंशों को छोड़कर लेखक भी अपने पात्रों की तरह बोलता है और व्याकरण-संबंधी भूलें करता है(यह कहना कठिन है कि जानबूझकर या असावधानी से)”[22]
4.     “चित्रण और वर्णन में कितनी बातें छोड़ देनी चाहिए और कितनी का उल्लेख होना चाहिए—कथाशिल्प की इन विशेषताओं में मैला आँचल का लेखक  प्रेमचंद की परंपरा  से दूर जा पड़ा  है।’’[23]
उपर्युक्त उद्धरणों पर ध्यान देने सेमैला आँचल संबंधी रामविलास जी का दृष्टिकोण स्पष्टहो जाता है।शर्माद्वयके मतों को समग्र परिप्रेक्ष्य में देखने पर यह भी स्पष्ट है किप्रेमचंद की परंपरा की व्याख्या दोनों करते हैं। एक उस व्याख्या का उपयोग मैला आँचल को ध्वस्त करने के लिए करते हैं, दूसरे( नलिन जी) उसका उपयोग मैला आँचल को उपन्यास के एक प्रतिमान के रूप में स्थापित करने के लिए करते हैं। यहाँ ध्यान देना जरूरी है कि नलिन जी की मूल स्थापना ही रामविलास जी के लिए प्रस्थान बिन्दु है । यदि वे प्रेमचंद की परंपराकी बात करते हैं तो जाहिर है कि इसके लिए सूत्र वे नलिन जी से ही ग्रहण करते हैं । समीक्षा की समीक्षा बाले आलेख के लिए यह बात सकरात्मक भी होती है, नकरात्मक भी होती है। इसलिए अब देखना चाहिए कि रामविलास शर्मा का आलेख किस दिशा की ओर अग्रसर है ?
रामविलास जी अपने आलेख में ‘प्रेमचंद की परंपरा’ की अपनी व्याख्या में अपने प्रिय लेखकों के जितने नजदीक होते जाते हैं,‘रेणु से उतने ही दूर होते जाते हैं। इस प्रकार वे‘प्रेमचंद की परंपरा’ का एक अपना वृत्त तैयार करते हैं जिसके भीतर फिट करने के लिए रेणु को अपने अनुरूप नहीं समझते हैं। दूसरी ओर नलिन जी पहले से तैयार किए हुए ऐसे किसी वृत्त का उपयोग नहीं करते हैं। वे प्रसंगतः प्रेमचंद, तोलल्स्तोय,शोलोकोव,लीविस,स्टाइनबेक का जिक्र करते हैं। हम इसे उनके अध्ययन की व्यापकता का प्रभाव भी कह सकते हैं । हम यह नहीं कह रहे कि रामविलास जी में अध्ययन की व्यापकता नहीं है। हाँ, उनमें अपने प्रिय लेखकों के प्रति उनका पूर्वग्रह बार-बार उभरता दिखता है । नलिन जी में ऐसा कोई आग्रह नहीं है। उनकी तुलनात्मकता का आधार प्रियता-अप्रियता नहीं है । वे कई कृतियों के सामान्य गुणधर्म को तुलना का आधार बनाते हैं और हिन्दी के विशिष्ट उपन्यास गोदान के बाद मैला आँचल का नाम लेते हैं। वे वैश्विक संदर्भों की चर्चा करते हुए भी मैला आँचल को हिन्दी के पाठकों की रुचि के दायरे में ले आते हैं।रामविलास जी हिन्दी लेखकों का जिक्र करते हुए भी मैला आँचल को हिन्दी के पाठकों की समान्य रुचि का विषय नहीं बना पाते। हम जानते हैं कि आलोचना का एक काम पाठकों की रुचि को संस्कारित करना है, उसे संवर्धित और पोषित करना भी है। क्या रामविलास जी की समीक्षा से आलोचना के इस धर्म का पालन होता है? इस समीक्षा को पढ़कर जो समग्र प्रभाव उत्पन्न होता है उसके आधार पर तो यही कहा जा सकता है कि‘नहीं’।
रामविलास जी बड़े आलोचक हैं । अक्सर ये देखा जाता है कि बड़े आलोचक के अंतर्विरोध भी बड़े होते हैं। उक्त आलेख में ही जहाँ वे रेणु को प्रेमचंद की प्ररंपरा के प्रतिकूल दिखाते हैं, कुछ देर बाद कहते पाये जाते हैं कि“‘मैला आँचल का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है जो उसे प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ता है। बहुत कम उपन्यासों में पिछड़े हुए गाँवों के वर्ग-संघर्ष, वर्ग-शोषण और वर्ग-अत्याचारों का ऐसा जीता–जागता चित्रण मिलेगा। यह उसका सबल पक्ष है ।’’[24]एकमात्र इसीउद्धरण में तीन बातेंकाबिलेगौर हैं—
(1)               मैला आँचलकी  विशिष्टता उसे प्रेमचंद की परंपरा से जोड़ती है ।
(2)               वर्ग चेतना से संबंधित चित्रण उपन्यास का सबलपक्ष है।
(3)               मैला आँचल के गुणोंको भुला देना उचित न होगा ।
रामविलास जी मैला आँचल के समग्र प्रभाव को इन्हीं कुछ पंक्तियों में उजागर कर देते हैं। बड़े आलोचक की एक पहचान यह भी है कि वह कितने कम शब्दों में बड़ी बात कह डालता है। दूसरी और वे खंडन करने के लिए कई पृष्ठ लिख डालते हैं।उसकी सफलता- असफलता का निर्णय फिलहाल नहीं । हम बताना चाहते हैं कि जो रामविलास जी आरंभ  में प्रेमचंद की परंपरा में रेणु के न शामिल होने की धारणा प्रस्तुत कर रहे हैं , वही आगे चलकर रेणु को प्रेमचंद की परंपरा में होने का कारण बता रहे हैं। यह आलोचक के रूप में रामविलास जी का एकबहुत बड़ा अंतर्विरोध है । इस अंतर्विरोध का लाभ मिलता है मैला आँचल को । सजग पाठक देख सकता है कि प्रच्छन्न रूप से रामविलास जी मैला आँचलकी शक्ति को स्वीकार कर कर रहे हैं । केवल नलिन जी के कथन का विरोध करने के लिए विरोध का रास्ता अपना रहे हैं। जब वे मैला आँचल के प्रति प्रच्छन्न सहमति व्यक्त करते हैं तो इसमें कोई दो राय नहीं कि नलिन से उनका विरोध पूरी तरह सार्थक और सोद्देश्य है। प्रसंगतः ध्यान दिलाना होगा कि अयोध्या प्रसाद खत्रीके संदर्भ में नलिन जी ने उनके समकालीन आलोचकों के लिए “निषेधमूलक मान्यता” जैसे अतिविशिष्ट पद का प्रयोग किया है । दिलचस्प संयोग है कि हमारे आलोच्य प्रसंग में नलिन जी कायह पद स्वयं रामविलास जी की मैला आँचल संबंधी आलोचना-दृष्टि पर चस्पां हो जाता है। और तो और ‘मैला आँचल’की व्याख्या और समीक्षा के प्रति रामविलास जी का जो बर्ताव है, वह स्वयं नलिन जी की समीक्षा के लिएभी “निषेधमूलक स्वीकृति” का उदाहरण बन गया है।





संदर्भ
[1]सकलदेव शर्मा,2015, मेरी-मार्टिन मैलेरिया और डागडर बाबू, आलोचना(19-20),राजकमल प्रकाशन :119
[2]सुरेन्द्र चौधरी,2012, फणीश्वरनाथ रेणु’, साहित्य अकादमी, दिल्ली :105
[3]मधुरेश,2011,हिन्दी उपन्यास का विकास, सुमित प्रकाशन, इलाहाबाद :138
[4]नलिन विलोचन शर्मा,1955, मैला आँचल,आलोचना-15, राजकमल प्रकाशन:106
[5]भारत यायावर( सं),2007,रेणु ग्रंथावली-5,राजकमल प्रकाशन, दिल्ली :545
[6]नलिन विलोचन शर्मा,1955, मैला आँचल,आलोचना-15, राजकमल प्रकाशन:106
[7]वही:105-106
[8]वही:106
[9]वही:106
[10]वही:107
[11]वही:107
[12]वही:107
[13]भारत यायावर (सं),2006,  मैला आँचल वाद-विवाद-संवाद , आधार प्रकाशन, पंचकूला:31
[14]प्रकाशचन्द्र गुप्त,1956, साहित्यधारा, हिन्दी प्रचार पुस्तकालय, बनारस : 141
[15]भारत यायावर (सं),2006,  मैला आँचल वाद-विवाद-संवाद , आधार प्रकाशन,पंचकूला:103
[16]नेमिचन्द्र जैन,2002,अधूरे साक्षात्कार,वाणी प्रकाशन, नईदिल्ली :35
[17]वही:66
[18]नलिन विलोचन शर्मा,1955, मैला आँचल,आलोचना-15, राजकमल प्रकाशन:106
[19]रामविलास शर्मा,2009,आस्था और सौंदर्य,राजकमल प्रकाशन:96
[20]वही:96
[21]वही:97
[22]वही:97
[23]वही:97
[24]वही:97