

पैर से लिखने की
शुरुआत बड़े शरारतन ढंग से हुई। मैं पढ़ना शुरू कर चुका था, लेकिन लिख नहीं पाता था। उस वक्त आठ-नौ
साल का रहा होऊंगा कि एक दिन अचानक मन में अंत:स्फुरण सी हुई। मैंने
चुपके से जाकर पिताजी की कलम उठा ली और उसे अपने दायें पैर के अंगूठे और
तर्जनी के बीच फंसाकर हाथ से हल्का-सा सहारा देते हुए अपना नाम उनके रजिस्टर
पर जैसे-तैसे लिख डाला। लेकिन ऐसा करने के बाद मैं पता नहीं क्यों डर-सा
गया और एक अपराध-बोध से घिर गया। मैं एक कोने में जाकर छिप गया और अपनी उस
हरकत की पिताजी पर होने वाली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा।
पिताजी आए और अपने रजिस्टर पर मेरा नाम एक नई लिखावट में लिखा देखकर अचंभे में
पड़ गए। इन दिनों भाइयों में मैं ही अकेला घर पर था, इससे वे समझ गए कि इसे मैंने ही लिखा
है। उन्होंने मां को आवाज दी, ‘जरा
सुनो तो, देखो क्या हुआ है।’
मैं घबरा गया, पता नहीं क्या हो, लेकिन मैंने देखा कि पिताजी खुशी से
पुलक रहे थे। मुझे ढाढ़स बंधा कि डरने वाली बात नहीं है। मैं निकलकर बाहर
आ गया और धीरे-धीरे पिताजी के पास जाकर खड़ा हो गया। पिताजी ने पूछा,
‘इसे तुमने लिखा है! कैसे किया, जरा फिर से लिखकर दिखाओ।’ मैंने वैसे ही लिखकर दिखा दिया। वह दिन
मेरे जीवन का चिरस्मरणीय
दिन है।
उसके बाद मेरा विधिवत
लिखना-पढ़ना शुरू हो गया। मिडिल स्कूल और हाईस्कूल तक तो कोई खास दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि तब तक फर्श पर बिछे पाटी पर
बैठकर लिखने
की सुविधा थी, लेकिन
जब कॉलेज में आया तो बेंच-डेस्क पर बैठकर लिखने की समस्या सामने आई। पैर को डेस्क को
रखकर लिखना काफी असुविधाजनक था। संतुलन बिगड़ जाने और लुढ़क जाने का खतरा
रहता था। तेजी से लिख पाना तो मुश्किल ही था। इसके लिए मैंने किनारे
की दीवार के सहारे बैठकर लिखने का तरीका खोज निकाला। कॉलेज और
विश्वविद्यालय की कक्षाओं में हमेशा मेरे बैठने का स्थान नियत रहा – पहली लाइन की किनारे वाली सीट।
चाय भी मैं कप को पैर
से ही पकड़कर पीता हूँ। कभी-कभार बाहर होटल आदि में मुझे पैर के सहारे खाते-पीते देखकर
लोग कौतूहल में जरूर पड़ जाते हैं, लेकिन
मेरे लिए तो यह रोज का स्वाभाविक अभ्यास है। मुझे हर नए काम के लिए अपना अलग तरीका ईजाद
करने का मौका मिलता रहता है। मैं अलग-अलग कामों को नए-नए तरीके से करने के प्रयोग में लगा
रहता हूँ।
विकलांगता ने मेरे
जीवन और मेरी प्रवृतियों की दिशा निर्धारित करने में भी एक अहम भूमिका निभाई है। यदि मैं
विकलांग न रहा होता तो संभवत: आज मैं साहित्य और लेखन के बजाय सक्रिय राजनीति
में उठापठक कर रहा होता। बचपन में खेल पाने में अक्षम होने के कारण मैं
एकांतप्रिय और चिंतनशील हो गया। घंटो घर से दूर किसी तालाब के किनारे या
वृक्ष के नीचे सोचता रहता था। आचार्य नरेन्द्र देव और बाद में राममनोहर
लोहिया आदि समाजवादी नेताओं के संसर्ग ने इस प्रवृत्ति को और आगे बढ़ाया। साहित्य,
समाज, राजनीति, इतिहास और दर्शन संबंधी मुद्दों और समस्याओं पर
पढ़ता-सोचता रहा। यही अध्ययन-चिंतन मेरे लेखन का प्रेरणा-स्रोत रहा है। मुझे
लगता है कि मैं सही दिशा में ही हूँ, पर यदि मैं पूरी तरह से शारीरिक रूप से दुरुस्त रहा होता तो इस
दिशा में शायद
और भी बहुत कुछ कर सकता था। मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं कभी नहीं रहीं, पर अपने चिंतन को व्यापक रूप देने और
बेहतर सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्य स्थापित करने की दिशा में भूमिका
निभाने की तमन्ना बराबर रही है। अपनी ओर से मैं प्रयत्नशील हूँ। देखें,
आगे क्या होता है।
एक बात के लिए मैं
अपने जीवन में सदा सबका आभारी रहूंगा कि आज तक किसी ने भी मेरी विकलांगता को लेकर मेरे साथ
ऐसा व्यवहार नहीं किया है जिससे मैं अपमानित या क्षुब्ध हुआ होऊं। उल्टे
सबने मुझे हमेशा प्रोत्साहन और सहयोग ही दिया। यही कारण है कि मैं कभी
हीनग्रंथि का शिकार नहीं हुआ। विकलांगता कभी अभिशाप नहीं लगी। अपनी विकलांगता का
अहसास मुझे कभी नहीं कचोटता ।’’(सृजन- शिल्पी ब्लॉग से साभार )
जब मैं दिल्ली
आ रहा था उस समय कलशी मेम ने मुझे डॉ रघुवंश जी का पता और फोन नंबर दिया था , समय ले कर मिल लेना उनसे ।
मैं अपने संकोच और आलसीपन के कारण यह सौभाग्य खो दिया । 10-15 दिन पहले जब मेम
उनसे मिलने एम्स आई थी मुझे भी साथ ले गयी थी । मेम ,उंनसे
मेरा परिचय करवा रही थी , ये मेरा विद्यार्थी है आनंद ! पहले पटना में था । एम ॰ फ़िल ॰ के लिए
दिल्ली आया है । असह्य दर्द में भी वे मेरी तरफ देख रहे थे उनकी आखें मुझसे बातें
कर रही थी । मानो कह रह रहें हो तुमने काफ़ी देर कर दी वत्स ! मैं उन्हें
काफ़ी देर तक देख नहीं सका । उन्हें प्रणाम करके आईसीयू से बाहर आ गया । अब वे हमारे साथ नहीं रहे भगवान उनकी आत्मा को शांति दे ।
।